संधारित्र (capacitor)

दो चालकों को समीप लाने पर बना समायोजन ही संधारित्र है । जब एक धनावेशित चालक तथा उतने ही ऋण आवेश से आवेशित चालक एक – दूसरे के समीप लाए जाते हैं , तो यह समायोजन कहलाता है । धनावेशित चालक को धनात्मक प्लेट तथा ऋणावेशित चालक को ऋणात्मक प्लेट कहते हैं । धनात्मक प्लेट पर आवेश ही या आवेश कहलाता है । धनात्मक तथा ऋणात्मक प्लेटों के बीच विभवान्तर ही संधारित्र पर विभव कहलाता है ।

किसी चालक को वैद्युत धारिता निम्नलिखित दो प्रकार से बढ़ायी जा सकती है- (i) चालक का आकार बढ़ाकर तथा (ii) चालक का विभव कम करके । ” संधारित्र एक ऐसा समायोजन है जिसमें किसी चालक के आकार में परिवर्तन किए बिना उसका विभव कम करके चालक की धारिता बढ़ायी जा 

सकती है । अतः इस समायोजन में आवेश की पर्याप्त मात्रा संचित की जा सकती है ।

” इस प्रकार संधारित्र एक छोटे से क्षेत्र में वैद्युत आवेश अर्थात् वैद्युत ऊर्जा की पर्याप्त मात्रा संचित करने का एक साधन है।”

संधारित्र का सिद्धान्त ( Principle of capacitor )

 

संधारित्र का कार्य सिद्धान्त इस तथ्य पर आधारित है कि जब किसी आवेशित चालक के समीप एक अन्य अनावेशित चालक रख दिया जाता है तो आवेशित चालक का विभव कम हो जाता है । यदि अनावेशित चालक भू – सम्पर्कित ( earthed ) हो तो आवेशित चालक का
विभव और भी कम हो जाता है । इसके परिणामस्वरूप आवेशित चालक की धारिता में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है ।
इसको निम्न प्रकार समझा जा सकता है|
चित्र 7 ( 8 ) में धातु की एक प्लेट P1 है , जो विद्युतरोधी स्टैण्ड पर लगी हैतथा जिसे किसी विद्युत मशीन द्वारा धनावेश दिया गया है

 । इसका सम्बन्ध स्वर्णपत्र विद्युतदर्शी से करने पर पत्तियाँ फैल जाती है । पत्तियों का फैलाव प्लेट P1 के विभव को मापता है । जब प्लेट P1 के समीप धातु की ही एक अन्य आवेशित प्लेट P2 , जो विद्युतरोधी स्टैण्ड पर लगी है , लायी जाती है तो पत्तियों का फैलाव कुछ कम हो जाता है । अब यदि प्लेट P2 , को पृथ्वी से जोड़ दें तो पत्तियों का फैलाव और कम हो जाता है [ चित्र 7 ( b ) ] । अब यदि प्लेट P1 व P2 के बीच की दूरी कम कर दी जाए तब पत्तियों का फैलाव और कम हो जाता है ।

प्रयोग की व्याख्या (Explanation of experiment)

 

माना कि प्रारम्भ में प्लेट P1 पर ( + q ) आवेश है । जब प्लेट P2  को P1 के समीप लाया जाता है तो प्रेरण द्वारा P2 , के भीतरी तल पर ऋणावेश और बाहरी तल पर धनावेश उत्पन्न हो जाता है । P2 के ऋणावेश के कारण P1 का विभव कम हो जाता है , जबकि धनावेश के कारण बढ़ जाता है । यद्यपि प्लेट P2 , पर धन व ऋण आवेशों की मात्राएँ बिल्कुल बराबर होती है , परन्तु इसका ऋणावेश प्लेट P1 के अधिक निकट होता है । इसीलिए प्लेट के धनावेश की अपेक्षा ऋणावेश का प्रभाव अधिक होता है ।

फलत : प्लेट P1 का विभव थोड़ा – सा कम हो जाता है । जब प्लेट P2 को पृथ्वी से जोड़ दिया जाता है तो इस पर पृथ्वी से इलेक्ट्रॉन ( ऋणावेश ) आ जाते हैं जिससे इसका धनावेश विसर्जित हो जाता है । इस प्रकार प्लेट P1 पर P2 , धनावेश का प्रभाव समाप्त हो जाता है जिससे उसका विभव और कम हो जाता है । अब , यदि प्लेटों P1 व P2 के बीच की दूरी घटा दी जाती है तो P2 के ऋणावेश का P1 पर विभव कम करने वाला प्रभाव और बढ़ जाता है । फलत : P1 का विभव और कम हो जाता है । प्लेट P1 को फिर उसी विभव तक लाने के लिए इसे और अधिक आवेश दिया जा सकता है ।

स्पष्ट है कि किसी आवेशित चालक की धारिता , उसके समीप पृथ्वी से सम्बन्धित एक अन्य चालक लाकर बढ़ायी जा सकती है । यह सम ही , जिस पर पर्याप्त मात्रा में आवेश ( अर्थात् वैद्युत ऊर्जा ) एकत्रित किया जा सकता है ‘ संधारित्र ‘ ( capacitor ) कहलाता है ।

दूसरे शब्दों में , संधारित्र किसी भी आकार के दो ऐसे चालकों का युग्म है जोकि एक – दूसरे के समीप हों और जिन पर बराबर तथा विपरीत आवेश हों । ये चालक संधारित्र की प्लेटें ‘ कहलाते हैं । यदि प्लेटों के बीच वायु के स्थान पर परावैद्युतांक K का कोई अन्य माध्यम हो तब संधारित्र की धारिता बढ़कर K गुना हो जाती है ।